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रहमान के सम्मान में ,

दीवार में थी एक खिड़की पर नज़र आती न थी /
ज़िन्दगी बेहद हसीं थी पर इस कदर गाती न थी //
जग चुका है जिस्म में इक रूह के एहसास सा /
लग रहा हर एक लम्हा आज बेहद खास सा //
भूल कर हर दर्द अपना ,जागता है एक सपना /
एक नन्हा बीज कैसे बन सका व़त का पनपना //

कौंधता दिनमान पलपल ,जागते अरमान पलपल /
राग बढ़ता रूप बन कर ,सुर हुए रहमान पलपल //
आज माटी का कोई एक क़र्ज़ ही चुकता हुआ है /
मान में अपनी धरा के जगत ही झुकता हुआ है //मदन गंधी,इस वसन्ती हवा से कुछ बोल देना / हे सृजन के देवता ,इक और खिड़की खोल देना //

4 टिप्‍पणियां:

  1. कौंधता दिनमान पलपल ,जागते अरमान पलपल /
    राग बढ़ता रूप बन कर ,सुर हुए रहमान पलपल //
    आज माटी का कोई एक क़र्ज़ ही चुकता हुआ है /
    अत्यंत रोचक गंभीर भावो को वहन करती सुन्दर शब्द रचना ... वाह वाह

    जवाब देंहटाएं
  2. कौंधता दिनमान पलपल ,जागते अरमान पलपल /
    राग बढ़ता रूप बन कर ,सुर हुए रहमान पलपल //

    Bhupendra ji, aapki nayee rachnaayen padhiin,der se hi sahi lekin aaj padhne ka saubhagya praapt hua.Aapki lekhni men kuchh hai jo dusre adhikaansh logon se alag hai.
    rachna bahut achchhi ban padi hai.
    badhaayee evam dhanywaad sweekar karen.

    जवाब देंहटाएं

© डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह. Blogger द्वारा संचालित.