आज एक ताज़ी कविता
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पहचान ले जो जिंदगी ,वो नजर कहाँ से लाऊं ?
ये है आंसुओं की मंडी,यहाँ कैसे मुस्कराऊँ ?
ये दबी -दबी सी आहें ,उफ़ ,ये नजर का कुहासा ,
जहाँ ग़म के सिलसिले हैं वहां कैसे गुनगुनाऊँ ,
यहाँ भूख का सफ़र है ,वहां रोशनी का जलवा ,
जहाँ इत्र उड़ रहा हो वहां प्यास क्या बुझाऊँ ,
हर एक खुश है यारों ,चलो बच गयी है इज्जत ,
इस रोशनी के आँसू तुम्हें मीत क्या दिखाऊँ ,
फुटपाथ पे जो बूढा अभी बिन रहा था टुकड़े ,
पहियों तले बिछा है,उसे बोलो कहाँ लिटाऊ,
मेरे देश चुप हो कैसे ,कुछ बोलते नहीं क्यों?
सदियों रहा हूं भूखा ,कैसे वजन उठाऊँ //
बहुत सुंदर भावाव्यक्ति ,संवेदनशील रचना ......
जवाब देंहटाएंachchha likha hai ...
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया जी, शुक्रिया।
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मिल गयी दूसरी धरती?
घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।
बहुत बढ़िया कविता ...
जवाब देंहटाएंवाह ...बहुत ही सुन्दर शब्दों का संगम है ...आभार ।
जवाब देंहटाएंवाह!...आपकी लेखनी काफी पक्की है ज़नाब! बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
यथार्थ को कहती सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुन्दर संवेदनशील रचना...
जवाब देंहटाएंसादर बधाई...
वाह वाह वाह। आपको बधाई देने के मै शब्द कहाँ से लाऊँ। वाह बंधु बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसकारात्मक सोंच जरुरी है !
जवाब देंहटाएंBahut behtreen abhivyakti
जवाब देंहटाएंbahut achhi rachna..
जवाब देंहटाएंवाह भूपेंद्र जी, आपने शब्दों को कितना सार्थक संजोया है की वे परस्पर अपने अर्थों की अभिव्यक्ति दे रहे हैं...बेहतरीन ...
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