लिखता हूँ मैं
लिखता हूँ मैं ,दिखता हूँ मैं ,
टुकड़ों -टुकड़ों बिकता हूँ मैं ,
फिर भी छोड़ कहाँ जाऊं सब ?
इस माटी की सिकता हूँ मैं //
ओढ़ भ्रमों का चोला-बाना,
खुद-खुद से रह गया अजाना ,
भले रहा नन्हा सा तिनका ,
तूफानों में टिकता हूँ मैं //
ऊब गया पर जूझ रहा हूँ ,
कठिन पहेली बूझ रहा हूँ ,
बार-बार अपने अंधियारे ,
उजियारों सा लिखता हूँ मैं//
रचता रहा युगों से अबतक ,
मैं एकाकी इस धरती पर ,
इसी लिए इस निर्मम रन में ,
जैसा हूँ वैसा दिखता हूँ//
बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंखुबसूरत रचना ,दिल कहा वाह .....
जवाब देंहटाएंइसी लिए इस निर्मम रन में ,
जवाब देंहटाएंजैसा हूँ वैसा दिखता हूँ
गहन अभिव्यक्ति.....
ACHHA LIKH RAHE HAIN AAP, LIKHTE RAHEN. HAMAARI SHUB KAAM NAAYEN AAOKE SATH HAIN.
जवाब देंहटाएं............
ब्लॉ ग समीक्षा की 12वीं कड़ी।
अंधविश्वास के नाम पर महिलाओं का अपमान!
सुन्दर नये प्रतीकों वाली सुन्दर रचना । बधाई ।
जवाब देंहटाएंवाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंबार बार अपने अन्धियारे. ,उजियारों सा लिखता हूँ ,छोटी बहर की अच्छी ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंहोने, लिखने और दिखने की बात पर भवानी भाई बरबस याद आ जाते हैं.
जवाब देंहटाएंलिखता हूँ मैं ,दिखता हूँ मैं ,टुकड़ों -टुकड़ों बिकता हूँ मैं ,
जवाब देंहटाएंफिर भी छोड़ कहाँ जाऊं सब ?इस माटी की सिकता हूँ मैं
...waah! bahut khoob!