ग़ज़ल
मैं आदमी हूँ ,मुझे आदमी ही रहने दो/
रोज के रंज ओ ग़म लाचारगी से सहने दो //
दोस्त के तेग से बच पाया है कोई सीजर?
मुझे अनजान सड़क पर नदी सा बहने दो//
कितना समझाऊँ अपने आपको की मै जिन्दा हूँ/
मुझे खामोशियों के इस शहर में रहने दो//
इन हवाओं ने ग़ुल कर दिए हैं कितने चिराग /
तो भी तुम नूर का दरिया हो,मुझको कहने दो//
मैं आदमी हूँ ,मुझे आदमी ही रहने दो/
जवाब देंहटाएंरोज के रंज ओ ग़म लाचारगी से सहने दो //
बहुत बढ़िया ....सुंदर ग़ज़ल
बहुत खूब! आप हमेशा वैसे ही आगे बढ़ते जाते हैं जैसे अर्जुन कृष्ण का एक राग समझ ही पाता है कि भगवन दूसरा राग छेड़ देतें हैं.
जवाब देंहटाएंआपने 'जीवन संदर्भ' बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है अपनी इस अनुपम अभिव्यक्ति में.
जवाब देंहटाएंमैं आदमी हूँ ,मुझे आदमी ही रहने दो/
रोज के रंज ओ ग़म लाचारगी से सहने दो //
खूबसूरत प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
मैं आदमी हूँ ,मुझे आदमी ही रहने दो/
जवाब देंहटाएंरोज के रंज ओ ग़म लाचारगी से सहने दो //
...bahut badiya gajal..
मैं आदमी हूँ ,मुझे आदमी ही रहने दो/
जवाब देंहटाएंरोज के रंज ओ ग़म लाचारगी से सहने दो
waah sir kya likha hai waah dil se nikli hai awaaz bilkul...
aapka akshay