चाहे घर जाओ या वन जाओ ,
तुम झुको कि या फिर तन जाओ ,
चाहे छाया बन कर फिरो कहीं ,
या मन का दर्पण बन जाओ ,
आंसू बन आँखों की देहरी ,
अगवानी हो इन सांसों की,
झंझावातों में जीवन के ,
क्या रिक्ति शेष परिहासों की ?
उजला उजला सब दीख रहा पर ,
पर बहुत शेष है कालापन ,
चेहरे पर चेहरे लगे हुए ,
कब तक सच बोलेगा दर्पण ?
इन विश्वासों के गीतों की ,
जाने क्यों टूटी है हर लय?
अपनों ने इतना छला कि अब ,
अपने पन से लगता है भय ,
मेरे मानस के राजभवन का ,
रोज यही तो किस्सा है ,
जिसका किंचित भी अंश नहीं ,
उसका ही पूरा हिस्सा है //
तुम झुको कि या फिर तन जाओ ,
चाहे छाया बन कर फिरो कहीं ,
या मन का दर्पण बन जाओ ,
आंसू बन आँखों की देहरी ,
अगवानी हो इन सांसों की,
झंझावातों में जीवन के ,
क्या रिक्ति शेष परिहासों की ?
उजला उजला सब दीख रहा पर ,
पर बहुत शेष है कालापन ,
चेहरे पर चेहरे लगे हुए ,
कब तक सच बोलेगा दर्पण ?
इन विश्वासों के गीतों की ,
जाने क्यों टूटी है हर लय?
अपनों ने इतना छला कि अब ,
अपने पन से लगता है भय ,
मेरे मानस के राजभवन का ,
रोज यही तो किस्सा है ,
जिसका किंचित भी अंश नहीं ,
उसका ही पूरा हिस्सा है //
कविता अच्छी लगी.सर,मेरे पास आपका नं.नहीं है.इधर उधर आने-जाने में कहीं खो गया.आपसे बात हुए काफ़ी समय हो गया.याद आती रहती है.
जवाब देंहटाएंapke blog me jo revolver map aa raha hai uski wajah se post nahi padhi ja rahi wo post ke upar hai..
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