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ग़ज़ल 
दर्द उतरा है सरेशाम मेरी बस्ती में ,
अपने ही कर रहे हैं छेद अपनी कश्ती में ,
उम्र पर पाबंदियां ढीली हुई हैं आज तो ,
वक़्त की रंगीनियों मे लोग सारे मस्ती में ,
जल रहा है देश तो क्या अपना घर महफूज है ,
जोश है पर होश का क्या ,बचा कुछ क्या हस्ती में ?
छल रही है  रौशनी जब तम हुआ राजा यहाँ ,
मौन है जब सत्य तो संकल्प भी है पस्ती में ,

2 टिप्‍पणियां:

© डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह. Blogger द्वारा संचालित.