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गीत

मन दुखी है तन सुखी है ,कैसा है यह खेल ?
यह जीवन है या फिर सारे जीवन की है जेल. 
रटते रटते ,बारह खाड़ियाँ ,भूल गए सारी बातें ,
भूल गए सब चंदा तारे ,भूल गए गहरी  रातें ,
अब तो बस मुर्दा चामों की ढोल बजाना बचा रहा 
कब तक जागे चाँद पे बुढ़िया,कितना वो चरखा काते?
इसी लिए तो बैठ न पाया इस जीवन से मेल ,//
तकनीकी बातें जानी पर मन का साथी भूल गए ,
काँटों से नाते दारी की , कुचल मसल सब फूल गए ,
टीस भरी है पोर पोर में ,रग़ रग़ में अंगारे हैं ,
लंगड़े दौड़ें जीत रहे हैं पैरों वाले हारे हैं ,
 सच मे मीतों बदल गयी है जीवन की स्केल //
सबके अपने अपने हिस्से ,सबके अपने प्रश्न यहाँ ,
अपनी अपनी द्रोपदियां हैं अपने अपने कृष्ण यहाँ ,
हर कोई अपने ही रण में एकाकी सा जीता है ,
 सब कुछ सुन्दर सुन्दर दीखता फिर  क्यों मन वितृष्ण  यहाँ ?//







2 टिप्‍पणियां:

  1. "अब तो बस मुर्दा चामों की ढोल बजाना बचा रहा
    कब तक जागे चाँद पे बुढ़िया,कितना वो चरखा काते?"

    बहुत सुंदर गीत. अच्छा लगा.
    आपके नए पोस्ट का इंतजार रहता है.

    जवाब देंहटाएं

© डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह. Blogger द्वारा संचालित.