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मन

रू ठ गया मन ,थक गया मन ,ढल रही है शाम ,
और ओठों पर उतरता है तुम्हारा नाम //
झंझटें घरबार की ,छीजती छत है ,
रंग है बरसात का या कि आफत है ,
टूटी है श्रंखलायें ,बोल दो कुछ तो ,
दर्द का हद से गुज़रना एक राहत है ,

आज ज़्यादा चुभ रहा है भादों का ये घाम //और ओठों .........
रोशनी के चोर जीने भी नही देते ,
सहज हो कर ज़िन्दगी जीने नही देते ,
बढ़ गयी मुह्जोरियाँ क्यों यह शहर चुप है ?
पीड़ा नदी की ,धरा को पीने नही देते ,
हो चला है संगसारी का चलन अब आम //और ओठों ..........
ढूढता हूँ एक तनहा ,चुप रही सी शाम ,
मिल सके जिससे तपन में ,दर्द में आराम ,
भागती दुनिया में मन कैसे रहे थिर बंधू ?
शेष हैं संवेदनाएं पर हैं बहुत गुमनाम //और ओंठों ............

2 टिप्‍पणियां:

  1. टूटी है श्रंखलायें ,बोल दो कुछ तो ,
    दर्द का हद से गुज़रना एक राहत है ,
    bahut sundar pankhtiyaan......

    जवाब देंहटाएं
  2. पहली बार आपका ब्लाग देखा। बहुत अच्छी कविताएं कहते हैं आप। सुंदर अभिव्यक्ति है....
    ट्विंकल ट्विंकल जैसे प्रयोग जारी रखें...बेहद सुंदर है।
    चुनाव में व्यस्त हूं सो पत्रोत्तर में देरी के लिए क्षमा करेंगे।
    साभार
    अजित

    जवाब देंहटाएं

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